kal ke kapal par poem
गीत नया गाता हूँ
टूटे हुए तारों से फूटे बासंती स्वर
पत्थर की छाती मे उग आया नव अंकुर
झरे सब पीले पात कोयल की कुहुक रात
प्राची मे अरुणिम की रेख देख पता हूँ
गीत नया गाता हूँ
टूटे हुए सपनों की कौन सुने सिसकी
अन्तर की चीर व्यथा पलको पर ठिठकी
हार नहीं मानूँगा, रार नई ठानूंगा,
काल के कपाल पे लिखता मिटाता हूँ
गीत नया गाता हूँ
kal ke kapal par poem
(गीत नहीं गाता हूँ)
गीत नहीं गाता हूँ
बेनकाब चेहरे हैं,
दाग बड़े गहरे हैं,
टूटता तिलस्म, आज सच से भय खाता हूँ ।
गीत नही गाता हूँ ।
लगी कुछ ऐसी नज़र,
बिखरा शीशे सा शहर,
अपनों के मेले में मीत नहीं पाता हूँ ।
गीत नहीं गाता हूँ ।
पीठ मे छुरी सा चाँद,
राहु गया रेखा फाँद,
मुक्ति के क्षणों में बार-बार बँध जाता हूँ ।
गीत नहीं गाता हूँ । – अटल बिहारी वाजपेयी
धन्यवाद
धन्यवाद, कृपया किस जगह गलती है बताएं तो हम उसमे निश्चित रूप से सुधार करेंगे
NICE SAR
हार ‘नहीं’ मानूंगा रार ‘नई’ ठानूंगा
🙂
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बेनकाब चेहरे हैं,
दाग बड़े गहरे हैं,
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