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भारत के दूसरे राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जीवन परिचय | Dr. Sarvepalli Radhakrishnan Biography in Hindi
स्वतंत्र भारत के पहले उपराष्ट्रपति और दूसरे राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन को उनके महान कार्यों के लिए जाना जाता हैं. भारतीय इतिहास में उनका नाम स्वर्ण अक्षरों से लिखा गया हैं. वे एक शिक्षक, दार्शनिक, दूरदर्शी और समाज सुधारक थे.
हमारे देश के द्वितीय किंतु अद्वितीय राष्ट्रपति डॉ॰ सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म दिन (5 सितम्बर) को प्रतिवर्ष ‘शिक्षक दिवस’ के रूप में मनाया जाता है। इस दिन समस्त देश में भारत सरकार द्वारा श्रेष्ठ शिक्षकों को पुरस्कार भी प्रदान किया जाता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय इनकी गिनती विद्वानों में की जाती थी.
वे भारतीय संस्कृति के संवाहक और आस्थावान हिंदू विचारक थे. इन्होने पूरे विश्व में हिन्दू धर्म को फ़ैलाने का कार्य किया. डॉ राधाकृष्णन विवेकानंद और वीर सावरकर को अपना आदर्श मानते थे. उनका कहना था कि “देश के शिक्षक राष्ट्रनिर्माण में महतवपूर्ण भूमिका निभाते हैं. देश के भविष्य की नीव शिक्षकों के द्वारा मजबूत की जा सकती हैं.”
बिंदु | जानकारी |
नाम | डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन |
जन्म तारीख | 5 सितम्बर 1888 |
जन्म स्थान | तिरुमनी |
पद | भारत के पहले उपराष्ट्रपति भारत के दूसरे राष्ट्रपति |
पत्नी का नाम | शिवाकमु (Sivakamu) |
मृत्यु | 17 अप्रैल 1975 |
मृत्यु स्थान | चेन्नई |
डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन पुरस्कार और सम्मान:
1931 | नाइट बैचलर / सर की उपाधि , आजादी के बाद उन्होंने इसे लौटा दिया |
1938 | फेलो ऑफ़ दी ब्रिटिश एकेडमी |
1954 | भारत रत्न |
1954 | जर्मन “आर्डर पौर ले मेरिट फॉर आर्ट्स एंड साइंस |
1961 | पीस प्राइज ऑफ़ थे जर्मन बुक ट्रेड |
1962 | उनका जन्मदिन ५ सितम्बर शिक्षक दिवस में मानाने की शुरुआत |
1963 | ब्रिटिश आर्डर ऑफ़ मेरिट |
1968 | साहित्य अकादमी फ़ेलोशिप, डॉ राधाकृष्णन इसे पाने वाले पहले व्यक्ति थे |
1975 | टेम्प्लेटों प्राइज (मरणोपरांत) |
1989 | ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी द्वारा उनके नाम से Scholarship की शुरुआत |
डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन का जन्म 5 सितम्बर 1888 को तमिलनाडु के तिरुमनी गाँव में एक गरीब ब्राह्मण परिवार में हुआ था. इनके पिता का नाम सर्वपल्ली विरास्वामी था. वे एक विद्वान ब्राह्मण थे और राजस्व विभाग में कार्य करते थे. इनकी माता का नाम सीताम्मा था. परिवार की पूरी जिम्मेदारी इनके पिताजी पर ही थी. डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन का बचपन गाँव में ही बीता.
वर्ष 1903 में इनका विवाह सिवाकामू से साथ हुआ. विवाह के समय उनकी उम्र मात्र 16 वर्ष और उनकी पत्नी की उम्र मात्र 10 वर्ष थी. इनकी पत्नी ज्यादा पढ़ी-लिखी तो नहीं थी परन्तु तेलगु भाषा पर उनकी अच्छी पकड़ थी. वर्ष 1908 में इन्होने एक पुत्री को जन्म दिया. राधाकृष्णन जी की पत्नी की मौत 1956 में हो गई थी.
डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन बचपन से मेधावी छात्र थे. इनकी प्रारंभिक शिक्षा क्रिश्चियन मिशनरी संस्था लुथर्न मिशन स्कूल, तिरूपति में हुई. इसके बाद वे आगे की पढाई के लिए वर्ष 1900 ने वेल्लूर चले गए. जहाँ उन्होंने वर्ष 1904 तक शिक्षा ग्रहण की.
वर्ष 1902 में इन्होने मैट्रिक स्तर की परीक्षा उत्तीर्ण की जिसके लिए इन्हें छात्रवृति भी प्रदान की गयी थी. इसके बाद 1904 में इन्होने कला संकाय परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की.
शिक्षा का प्रभाव जहाँ प्रत्येक व्यक्ति पर निश्चित रूप से पड़ता है, वहीं शैक्षिक संस्थान की गुणवत्ता भी अपना प्रभाव छोड़ती है। क्रिश्चियन संस्थाओं द्वारा उस समय पश्चिमी जीवन मूल्यों को विद्यार्थियों के भीतर काफी गहराई तक स्थापित किया जाता था। यही कारण है कि क्रिश्चियन संस्थाओं में अध्ययन करते हुए राधाकृष्णन के जीवन में उच्च गुण समाहित हो गये। लेकिन उनमें एक अन्य परिवर्तन भी आया जो कि क्रिश्चियन संस्थाओं के कारण ही था। कुछ लोग हिन्दुत्ववादी विचारों को हेय दृष्टि से देखते थे और उनकी आलोचना करते थे।
उनकी आलोचना को डॉ॰ राधाकृष्णन ने चुनौती की तरह लिया और हिन्दू शास्त्रों का गहरा अध्ययन करना आरम्भ कर दिया। डॉ॰ राधाकृष्णन यह जानना चाहते थे कि वस्तुतः किस संस्कृति के विचारों में चेतनता है और किस संस्कृति के विचारों में जड़ता है? तब स्वाभाविक अंतर्प्रज्ञा द्वारा इस बात पर दृढ़ता से विश्वास करना आरम्भ कर दिया कि भारत के दूरस्थ स्थानों पर रहने वाले ग़रीब तथा अनपढ़ व्यक्ति भी प्राचीन सत्य को जानते थे। इस कारण राधाकृष्णन ने तुलनात्मक रूप से यह जान लिया कि भारतीय आध्यात्म काफ़ी समृद्ध है और क्रिश्चियन मिशनरियों द्वारा हिन्दुत्व की आलोचनाएँ निराधार हैं।
इससे इन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि भारतीय संस्कृति धर्म, ज्ञान और सत्य पर आधारित है जो प्राणी को जीवन का सच्चा सन्देश देती है। राधाकृष्णन जी को मनोविज्ञान, इतिहास और गणित विषय में विशेष योग्यता प्राप्त हुई थे. इसके बाद इन्होने दर्शनशास्त्र में अपना स्नाकोत्तर पूरा किया.
वर्ष 1909 में अपनी स्नाकोत्तर की पढाई पूरी करने के बाद मद्रास प्रेसीडेंसी कॉलेज में दर्शनशास्त्र के अध्यापक के रूप में कार्य किया. जिसके बाद वर्ष 1916 से 1918 तक मद्रास रजिडेसी कालेज में भी दर्शन शास्त्र के सहायक प्राध्यापक के तौर में भी काम किया. वर्ष 1918 मैसूर यूनिवर्सिटी के द्वारा उन्हें दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर के रूप में चयनित हुए1921 में राधा कृष्ण को कोलकाता विश्वविद्यालय के दर्शन शास्त्र का प्राध्यापक मनोनीत किया गया.
वर्ष 1923 में डॉक्टर राधाकृष्णन की किताब ” भारतीय दर्शनशास्त्र प्रसाद ” प्रकाशित हुई इस पुस्तक को सर्वश्रेष्ठ दर्शन , दर्शनशास्त्र साहित्य की ख्याति मिली सर्वपल्ली को ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में हिंदू दर्शनशास्त्र पर भाषण देने के लिए बुलाया गया. जिसके बाद वे इंग्लैंड की मशहूर ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी में दर्शन शास्त्र के प्रोफ़ेसर बन गए.
डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन एक महान दर्शनशास्त्री और लेखक भी थे. उन्होंने अंगेरजी भाषा में कई पुस्तके लिखी.
- भारत और चीन
- भारत और विश्व
- भारत की अंतरात्मा
- भारतीय संस्कृति कुछ विचार
- भारतीय दर्शन 1
- भारतीय दर्शन 2
- गौतम बुद्ध जीवन और दर्शन
- नवयुवकों से
- प्रेरणा पुरुष
- स्वतंत्रता और संस्कृति
- उपनिषदों का सन्देश
वर्ष 1939 में वे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति बने और सन 1948 तक कुलपति पद पर बने रहे.
डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन को राजनीति में लाने का श्रेय जवाहर लाल नेहरु को जाता हैं. जब डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी अपने युरोप और अमेरिका दौरे से पुनः भारत लौटे थे. संविधान निर्मात्री सभा का सदस्य बनाया गया। वे 1947 से 1949 तक इसके सदस्य रहे। इसी समय वे कई विश्वविद्यालयों के कुलपति भी नियुक्त किये गये।
13 मई 1952 से 13 मई 1962 तक वे देश के उपराष्ट्रपति रहे. उनको उपराष्ट्रपति बनायें जाने से सभी अन्य नेता हतप्रभ थे परन्तु अपने कार्यों से डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने सबको गलत साबित कर दिया और 13 मई 1962 को ही वे भारत के राष्ट्रपति निर्वाचित हुए.
यद्यपि उन्हें 1931 में ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा “सर” यह मानक उपाधि प्रदान की गयी थी लेकिन स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात उसका औचित्य डॉ॰ राधाकृष्णन के लिये समाप्त हो चुका था। जब वे उपराष्ट्रपति बन गये तो स्वतन्त्र भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ॰ राजेंद्र प्रसाद जी ने 1954 में उन्हें उनकी महान दार्शनिक व शैक्षिक उपलब्धियों के लिये देश का सर्वोच्च अलंकरण भारत रत्न प्रदान किया।
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