अमर बलिदानी अशफाक उल्ला खां – Ashfaqulla Khan Biography In Hindi
‘काकोरी कांड’ में फाँसी पाने वाले अशफाक उल्ला खाँ अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ का जन्म उत्तर प्रदेश के शहीदगढ शाहजहाँपुर में रेलवे स्टेशन के पास स्थित कदनखैल जलालनगर मुहल्ले में २२ अक्टूबर १९०० को हुआ था। उनके पिता का नाम मोहम्मद शफीक उल्ला ख़ाँ था। उनकी माँ मजहूरुन्निशाँ बेगम था
युवावस्था में उनकी मित्रता रामप्रसाद ‘बिस्मिल’ से हुई, जो फरार अवस्था में शाहजहाँपुर के आर्यसमाज मन्दिर में रह रहे थे। पहले तो बिस्मिल को उन पर संदेह हुआ; पर एक घटना से उनके बीच विश्वास का जो बंधन स्थापित हुआ, वह कभी नहीं टूट पाया।
शाहजहाँपुर में एक बार मुसलमानों ने दंगा कर दिया। वे आर्य समाज मन्दिर को नष्ट करना चाहते थे। अशफाक उस समय वहीं थे। वे दौड़कर घर गये और अपनी दुनाली बन्दूक तथा कारतूसों की पेटी लेकर आर्यसमाज की छत से दंगाइयों को ललकारा। उनका रौद्र रूप देखकर मुस्लिम दंगाई भाग गये। इसके बाद बिस्मिल जी का उनके प्रति विश्वास दृढ़ हो गया। उन्होंने अशफाक को भी अपने क्रान्तिकारी दल में जोड़ लिया।
क्रान्तिकारियों को अपने कार्य के लिए धन की बहुत आवश्यकता रहती थी। बिस्मिल का विचार था कि सेठ और जमीदारों को लूटने से पैसा अधिक नहीं मिलता, साथ ही आम लोगों में क्रान्तिकारियों के प्रति खराब धारणा बनती है। अतः उन्होंने सरकारी खजाना लूटने की योजना बनायी। अशफाक इस योजना से सहमत नहीं थे। उनका विचार था कि अभी हमारी शक्ति कम है; पर जब यह निर्णय ले लिया गया, तो वे सबके साथ हो गये।
नौ अगस्त, 1925 को लखनऊ-सहारनपुर यात्री गाड़ी को शाम के समय काकोरी स्टेशन के पास रोक लिया गया। चालक तथा गार्ड को पिस्तौल दिखाकर नीचे लिटा दिया। खजाने से भरा लोहे का भारी बक्सा उतारकर सब उसे तोड़ने लगे; पर वह बहुत मजबूत था। अशफाक का शरीर बहुत सबल था। सबके थक जाने पर उन्होंने हथौड़े से कई चोट की, जिससे बक्सा टूट गया। क्रान्तिकारियों ने सारे धन को चादरों में लपेटा और फरार हो गये।
- रामप्रसाद बिस्मिल
- अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ
- चन्द्रशेखर आज़ाद
- ठाकुर रोशन सिंह
- राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी
- सचिन्द्र बख्शी
- केशव चक्रवर्ती
- बनवारी लाल
- मुकुन्द लाल
- मन्मथ लाल गुप्त
फिर वे राजस्थान में क्रान्तिकारी अर्जुन लाल सेठी के घर रहे। उनकी पुत्री इन पर मुग्ध हो गयी; पर लक्ष्य से विचलित न होते हुए वे विदेश जाने की तैयारी करने लगे। इसी सम्बन्ध में आवश्यक तैयारी के लिए वे दिल्ली आये। यहाँ उनका एक सम्बन्धी मिल गया। उसने गद्दारी कर उन्हें पकड़वा दिया।
उनकी सजा तो पहले से ही तय थी; पर मुकदमे का नाटक पूरा किया गया। जेल में अशफाक सदा मस्त रहकर गजल तथा गीत लिखते रहते थे।
“हे मातृभूमि तेरी सेवा किया करूँगा
फाँसी मिले मुझे या हो जन्मकैद मेरी
बेड़ी बजा-बजाकर तेरा भजन करूँगा।।”
तथा –
“वतन हमेशा रहे शादकाम और आजाद
हमारा क्या है हम रहें, न रहें।।”
19 दिसम्बर, 1927 को फैजाबाद जेल में उन्हें फाँसी दे दी गयी। फन्दा गले में डालने से पहले उन्होंने कहा – ‘‘मुझ पर जो आरोप लगाये गये हैं, वह गलत हैं। मेरे हाथ किसी इन्सान के खून से नहीं रंगे हैं। मुझे यहाँ इन्साफ नहीं मिला तो क्या, उपरवाले के यहाँ मुझे इन्साफ जरूर मिलेगा।’’
फांसी के बाद शहीद अशफ़ाक़ की लाश फैजाबाद जिला कारागार से शाहजहाँपुर लायी जा रही थी। लखनऊ स्टेशन पर गाडी बदलते समय कानपुर से बीमारी के बावजूद चलकर आये गणेशशंकर विद्यार्थी ने उनकी लाश को अपने श्रद्धा-सुमन अर्पित किये। पारसीशाह फोटोग्राफर से अशफ़ाक़ के शव का फोटो खिंचवाया और अशफ़ाक़ के परिवार जनों को यह हिदायत देकर कानपुर वापस चले गये कि शाहजहाँपुर में इनका पक्का मकबरा जरूर बनवा देना, अगर रुपयों की जरूरत पडे तो खत लिख देना मैं कानपुर से मनीआर्डर भेज दूँगा।
अशफ़ाक़ की लाश को उनके पुश्तैनी मकान के सामने वाले बगीचे में दफ्ना दिया गया। गणेशशंकर विद्यार्थी ने २०० रुपये का मनीआर्डर भेजकर अशफ़ाक़ की मजार पर छत डलवा कर उसे धूप के साये से बचा लिया। उनकी मजार पर संगमरमर के पत्थर पर अशफ़ाक़ उल्ला ख़ाँ की ही कही हुई ये पंक्तियाँ लिखवा दी गयीं:
“जिन्दगी वादे-फना तुझको मिलेगी ‘हसरत’,
तेरा जीना तेरे मरने की बदौलत होगा।”
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