स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर
स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर ( 28 मई 1883 से 26 फरवरी 1966 ) एक निडर स्वतंत्रता सेनानी, समाज सुधारक, लेखक, नाटककार, राजनैतिक नेता और तत्त्वज्ञ थे। दुर्भाग्य से, सावरकर जी द्वेष और दुष्प्रचार के शिकार होते रहे हैं। जो लोग सावरकर जी के राजनैतिक विचारों से असहमत है, वे इस पूर्वधारणा से चलते है की सावरकर जी एक रूढ़िवादी, सुधार-विरोधक और प्रतिक्रियावादी धर्मांध नेता थे |
सावरकर जी का बहुतांश साहित्य मराठी भाषा में होने के कारण उनके विचार और उपलब्धियां महाराष्ट्र के बाहर अधिक तर अज्ञात रही है। इसी कारण से उनको सामान्यतः क्रांतिवादी स्वातंत्र्य सेनानी और हिन्दुत्व के प्रतिपादक के रूप में ही जाना जाता है | बहुत कम लोग इस बात को जानते है की वे एक श्रेष्ठ समाज सुधारक भी थे | सामाजिक सुधार के क्षेत्र में उनका योगदान आज भी सुसंगत लगता है | 28 मई को आनेवाली उनकी जयंती पर समाज सुधारक के नाते किये गए उनके योगदान का निष्पक्ष मूल्यांकन करने का अवसर देता है |
13 मार्च 1910 को सावरकर जी को लन्दन में हिरासत में लिया गया | उसके बाद उनको दो बार आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई और सजा भुगतने के लिए उन्हें अंदमान के कारावास में भेजा गया | यह दोनों सजाएं एक के बाद एक भुगतनी थी जिसका कुल काल 50 वर्ष था, जो ब्रिटिश राज के इतिहास में अपूर्व रहा है | कड़े विरोध के कारण ब्रिटिशों को 2 मई 1921 को सावरकर जी को अंदमान के सेल्युलर जेल से रिहा करना पड़ा |
मई 1921 से 6 जनवरी 1924 तक सावरकर जी को अलीपोर, रत्नागिरी और येरवडा के जेलों में बारी बारी से रखा गया | सामाजिक दबाव के कारण ब्रिटिशों को फिर उनको रिहा करना पड़ा | लेकिन ब्रिटिश सरकार इतनी डरी हुई थी की उन्होंने सावरकर जी के रत्नागिरी जिले के बाहर जाने पर पाबन्दी लगाई | इसके साथही उनके सार्वजनिक और निजी रूप में राजनीती में भाग लेने पर भी पाबन्दी लगाई गई और स्थानबद्ध किया गया | स्थानबद्धता प्रारंभ में पांच वर्ष और बाद में बढाकर 13 वर्ष कि गई | 8 जनवरी 1924 से 17 जून 1937 तक सावरकर जी रत्नागिरी में रहे | इस स्थानबद्धता के काल में सावरकर जी ने स्वयं को समाज सुधार के कार्य में झोंक दिया |
वीर सावरकर का यह मानना था की हिन्दू समाज को सप्त-बंदीयों या सात प्रतिबंधों ने कमजोर किया है | स्पर्शबंदी अर्थात अस्पृश्यता, शुद्धिबंदी अर्थात धर्म परावर्तन पर प्रतिबन्ध, बेटीबंदी अर्थात अंतर-जातीय विवाह पर प्रतिबन्ध, सिंधुबंदी अर्थात सामुद्रिक सफर पर प्रतिबन्ध, व्यवसायबंदी अर्थात अन्य जाती के व्यवसाय करने पर प्रतिबन्ध और वेदोक्तबन्दी अर्थात वैदिक कर्म करने पर प्रतिबन्ध ऐसे वह सात प्रतिबन्ध थे |
सावरकर जी ‘पूर्वास्पृश्य’ ( पूर्व-अस्पृश्य, जिनको पूर्व में अछूत माना गया था) शब्द के प्रयोग के पक्ष में थे | धर्मग्रंथ पर आधारित जातिगत भेदभाव के विरोध में सावरकर जी ने विद्रोह किया और उसको ऐसी मानसिक व्याधि बताया की जो मन के अस्वीकृत करने से तुरंत ठीक हो जाती है | उनका विश्वास था की जातिगत भेदभाव केवल एक सामाजिक परंपरा है | जातिगत भेदभाव का सनातन धर्म से कोई संबंध नहीं है | जातिगत भेदभावों के नष्ट होने से सनातन धर्म नष्ट नहीं होगा।(1930, जात्युच्छेदक निबंध अर्थात जाती निर्मूलन पर निबंध, SSV 3/444 )
VEER SAVARKAR HINDI QUOTES
उनका नाटक ‘उ:शाप’ अस्पृश्यता, महिलाओं का अपहरण, शुद्धि और रूढ़िवादियों के दोहरे पन इन विषयों पर लिखा हुआ है| जातिगत भेदभाव यह ब्राह्मण या ब्राह्मण और क्षत्रियों ने रचा हुआ षड़यंत्र है, इस सिद्धांत को सावरकर जी ने नकारा है | उनका कहना था की धर्मग्रंथ पर आधारित जातिभेदों के कारण उच्च वर्णियों ने किये अत्याचारों के लिए सभी जाती के लोगों को दोषी मानना चाहिए, ब्राह्मणों से भंगी ( वाल्मीकि ) तक सभी को, न केवल ब्राह्मण और क्षत्रियों को | धर्मग्रंथ आधारित जातिगत भेदभावों के कारण भंगी स्वयं को डोम से श्रेष्ठ मानता था | इसी तरह सभी ने अपने अपने तरीके से इस कुरिती का पालन किया था, आज तक कर रहे है | कोई भी उचित कारण के सिवा जातिगत भेदों को बनाए रखने का दोष सभी का है | इसलिए अच्छा है की इस सत्य को स्वीकारें | इसमें सुधार लाने की जिम्मेदारी सभी की है | हरेक अस्पृश्य जाती किसी न किसी दूसरे जाती को अस्पृश्य मानती है | हम सभी हिन्दू मिलकर ऐसी नींव बनाए जो सभी हिन्दुओं का समावेश करे | ( 1935, क्ष-किरणे, समग्र सावरकर वाङ् मय, खंड 3, पृ. 178 )
केवल बोलना छोड़, ” बाकि कोई करें या ना करें , मैं मेरे लिए यह सुधार आचरण में लाकर ही रहूँगा ” ऐसा जिसका व्यवहार हो वह ही सच्चा सुधारक है ।( समग्र सावरकर वाङ्गमय , खंड 3, पृष्ठ 75 ) । ऐसा कहने वाले वीर सावरकर जी ने अपने विचार और प्रचार को स्वयं के आचरण में लाया |
1925 में सावरकर जी ने तथाकथित अस्पृश्य जाती के बस्ति में सर्वेक्षण किया था | उन्होंने इस बस्ति में सामूहिक भजन के कार्यक्रम भी आयोजित किये | उन्होंने दापोली, खेड़, चिपलून, देवरुख, संगमेश्वर, खारेपाटन, देवगढ़ और मालवन जैसे छोटे शहरों का दौरा किया और जाति-आधारित भेदभाव की प्रथा को रोकने के लिए भाषण दिए और यह सुनिश्चित किया की इन स्थानों पर स्कूलों में इस कुप्रथा का पालन नहीं किया जाएगा।
उन्होंने यह भी सुनिश्चित किया कि तथाकथित निम्न जातियों के बच्चे-जैसे की महार, चमार, और बाल्मीकि-पाठशाला में पढने के लिए जाए, इसलिए उनको आवश्यक साहित्य दिया और उनके परिवार को आर्थिक भी मदद की | उन्होंने ऐसे स्कूलों की पोल खोल दी जो जाति-आधारित भेदभाव की नीति को जारी रखते थे और उच्च अधिकारियों को झूठी रिपोर्ट भेजते थे। सावरकर जी का कहना था की “ एक बार बच्चों को शिक्षित करने के बाद, वे अपने जीवन में जाति आधारित भेदभाव का पालन नहीं करेंगे। उन्हें जाति विभाजन का आचरण करने की आवश्यकता महसूस नहीं होगी। इसके अलावा, सरकार को तथाकथित अस्पृश्य जाति के बच्चों के लिए विशेष स्कूल शुरू करने की प्रथा छोड़ देना चाहिए, क्यों की इस स्कूल जाने वाले बच्चों में हीनता की भावना पैदा होती है । ” (बालाराव सावरकर, ibid, p.159)
स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर के अनमोल विचार.
केवल पाठशालोओं से नहीं बल्कि समाज से अस्पृश्यता की कुप्रथा समाप्त करने के लिए सावरकर जी पारंपरिक हिंदू त्योहार जैसे की दशहरा और मकर सक्रांति के अवसर पर विभिन्न जातियों के लोगो के साथ मिठाइया वितरित करने के लिए कई घरों में गये।
सावरकर जी की पत्नी यमुनाबाई-माई-ने हिंदू महिलाओं के सामूहिक हलदी-कुमकुम समारोहों का आयोजन किया। सावरकर जी ने इस बात पर विशेष रूप से ध्यान दिया की ऐसे सामूहिक हल्दी-कुमकुम समारोहों में तथाकथित अस्पृश्य जाती की महिलाऐं सवर्ण जाती के महिलाओं को कुमकुम तिलक लगाएं ताकी जातिभेद की कल्पना मन से कम होती जाए | उन्होंने तथाकथित अस्पृश्य समाज के लोगों को अपने नाटकों के मानार्थ पास दिए ताकि वे अन्य जातियों के लोगों के साथ खुलकर मिल सकें। तथाकथित अस्पृश्य समाज में सुधार लाने के लिए, सावरकर जी ने आर्थिक सहायता देकर उनका का एक बैंड पथक खड़ा किया।
1 मई 1933 को सावरकर जी ने रत्नागिरी में एक होटल शुरू किया जहाँ सभी जाती के लोगों को प्रवेश था | उस समय भारत में यह पहला ऐसा होटल था जहाँ समाज के सभी जाती के लोग आ सकते थे | इस होटल में उन्होंने पानी, चाय आदि की सेवा के लिए समाज के तथाकथित अस्पृश्य जाती के व्यक्ति को नियुक्त किया था।
श्री दाते जिन्होंने सावरकर जी के समग्र साहित्य का संपादन किया है, उन्होंने एक अनुभव कथन किया है | जब श्री दाते सावरकर जी को मिलने के लिए रत्नागिरी गए थे, तब सावरकरजी ने उनको सवाल किया की क्या वे उस होटल में जा कर चाय पीकर आये है? जब उन्होंने जवाब दिया की वो चाय पीते नहीं है, तब सावरकर जी ने उनसे आग्रह किया की उनको वहां जाकर कम से कम पानी तो पीना ही पड़ेगा और जब तक वो वहां जाकर नहीं आये तब तक मिलने से मना किया | यह होटल हमेशा घाटे में ही चलता था लेकिन खुद की आर्थिक स्थिति ख़राब होते हुए भी वह घाटा अपने जेब से भरते थे | उस समय वह ब्रिटिश प्रशासन द्वारा दिए गए 60 रुपये के मासिक भत्ते पर गुजरा कर रहे थे।
अपने सहयोगियों की सहायता से सावरकर जी ने एक मंदिर बनवाया जिसका नाम “पतितपावन मंदिर” (पतित = पतित; पावन = पवित्र ) रखा गया था। यह मंदिर हिंदुओं की सभी जातियों के लिए खुला था | श्री भागोजी सेठ कीर (एक भवन ठेकेदार) ने इस मंदिर के निर्माण के लिए हर संभव आर्थिक मदद की। महाशिवरात्रि के दिन यानी 10 मार्च 1929 को शंकराचार्य डॉ. कुर्तकोटी ने इस मंदिर की आधारशिला रखी। तब शिवू चव्हाण ने (एक बाल्मीकि लड़का, जिसे खुद सावरकर जी ने पढ़ना और लिखना सिखाया था ) सावरकर जी द्वारा रचित एक दिल को छू लेने वाला गीत प्रस्तुत किया। इस मंदिर का पुजारी ब्राह्मण ही होना जरूरी नहीं था।
सावरकर जी के काल में हिंदू धर्म में परावर्तन ( घरवापसी ) का निषेध हिंदू समाज की मुख्य समस्याओं में से एक थी। सावरकर जी का मानना था कि धर्मांतरण करने वालों का यह दावा करना की ” जो लोग एक बार विदेशी धर्म में गए हैं, उनकी घर वापसी से घृणा फैलती है” यह बिलकुल ठीक नहीं है ।
यह चोर के दावे की तरह है, जो चोरी करने के अपने अधिकार की रक्षा करता है और दावा करता है कि अगर चोरी किया हुआ माल चोरसे पीड़ित वापस ले लेंगे तो घृणा पैदा होगी। ”सावरकर जी का मानना था कि जिन हिंदुओं को जबरदस्ती से अन्य धर्मों में धर्मांतरित किया गया है, उन्हें हिंदू धर्म में फिर से प्रवेश का पूरा अधिकार है । उनके अनुसार मुसलमानों द्वारा धर्मांतरण से प्राप्त की गई भूमि, हिंदुओं से लड़कर जीती गई भूमी से कई अधिक है।
VEER SAVARKAR HINDI QUOTES – स्वातंत्र्यवीर विनायक दामोदर सावरकर.
सावरकर जी के अनुसार प्रत्येक हिंदू अपनी माँ के दूध के साथ-साथ, अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णुता की एक महान भावना सिखता है। लेकिन कोई भी उन्हें इस शिक्षा के पिछे की भावना नहीं सिखाता। यदि वह अन्य धर्म भी, हमारे धर्म के प्रति सहिष्णुता की समान भावना प्रदर्शित करता है, तो निश्चित रूप से एक महान धर्म है। लेकिन इस सिद्धांत को परिस्थितियों का विचार किए बिना लागू नहीं किया जा सकता है। यह उन मुसलमानों पर लागू नहीं किया जा सकता है, जो हिंदू धर्म का निर्दयतापूर्ण विनाश और काफ़िरों की हत्या धर्मनिष्ठ कार्य मानते हैं। उन परिस्थितियों में, ऐसे असहिष्णु कार्यों पर प्रतिक्रिया देना और इस तरह के अत्याचारों को मूहतोड जबाब देना वास्तव में एक महान भावना है।
उन्होंने सामाजिक क्षेत्र में अपने विचारों को समुद्र में जहाज से अपने शानदार छलांग से भी अधिक महत्वपूर्ण माना। सावरकर एक बडबोले, कृतिशून्य समाज सुधारक नहीं थे। सामाजिक क्षेत्र में उनकी गतिविधियाँ सशस्त्र संघर्ष में उनके कार्य से कम क्रांतिकारी नहीं थी।
भारत के पूर्व प्रधान मंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 2006 में पुणे में वीर सावरकर जयंती के अवसर पर अपने भाषण में कहा था “वीर सावरकर का जीवन प्रखर राष्ट्रवाद से भरा था । समझोता न करने वाले राष्ट्रवाद का मानदंड था। लेकिन सावरकर जी की देशभक्ति उनके समाज सुधार की अनूठी विशेषताओं से भी सजी थी। वह न केवल एक उग्र राष्ट्रवादी थे, बल्कि उनका राष्ट्रवाद समकालीन समाज में व्याप्त गलत बातों के बारे में अंधा नहीं था। उनमें समाज की नकारात्मकताओं का सामना करने, सवाल करने और लड़ने की हिम्मत थी, जो भारतीयों को सच्ची स्वतंत्रता प्राप्त करने से रोक रहे थे। वह केवल एक समाज सुधारक नहीं, बल्कि सामाजिक मूर्तिकार थे, जिन्होंने खामियों को दूर किया । उनमें भारतीयता को पूर्ण निर्दोष बनाने की दृष्टि थी।”
रवि प्रकाश अरोरा
आईएएस सेवानिवृत्त। यूपी कैडर
56, चरण 1, वसंत विहार,
देहरादून, 248006
उत्तराखंड
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