महारानी दुर्गावती का बलिदान
अपने देश को बचाने का साहस जितना पुरुषों में होता है उतना ही या उससे अधिक ही भारत की महिलाओं में भी होता है इस बात का प्रमाण भारतीय इतिहास को रानी लक्ष्मी बाई, रानी अबंतिका बाई लोधी, झलकारी देवी, रानी चेन्नम्मा, रानी तेजबाई जैसी सैंकड़ों वीरांगनाओं ने अपने रक्त से इतिहास लिख के दिया था. तब जंग केवल अधिकार की ही नहीं, सम्मान की भी थी. इन महान वीरांगनाओं की इस सूची में और एक नाम बड़े सम्मान से जोड़ा जाता है और वह है गोंडवाना साम्राज्य की रानी दुर्गावती।
जिनका नाम ही शक्ति का पर्याय हो, भला वह साहस की गाथा कैसे न लिखतीं. शायद उनके पिता को पता था कि वे एक दिन दुर्गा रूप धरकर दुश्मनों का संहार करेंगी, शायद इसीलिए उन्हें देवी की संज्ञा दी गई।
महारानी दुर्गावती कालिंजर के राजा कीर्तिसिंह चंदेल की एकमात्र संतान थीं। महोबा के राठ गांव में 1524 ई. की दुर्गाष्टमी पर जन्म के कारण उनका नाम दुर्गावती रखा गया। वे बाल्यावस्थासे ही शूर, बुद्धिमान और साहसी थीं । उन्होंने युद्धकला का प्रशिक्षण भी उसी समय लिया । प्रचाप (बंदूक) भाला, तलवार और धनुष-बाण चलाने में वह प्रवीण थी। अपने तेज, साहस और शौर्य के कारण इनकी प्रसिद्धि सब ओर फैल गयी।
उनका विवाह गढ़ मंडला के प्रतापी राजा संग्राम शाह के पुत्र दलपतशाह से हुआ। 52 गढ़ तथा 35,000 गांवों वाले गोंड साम्राज्य का क्षेत्रफल 67,500 वर्गमील था। यद्यपि दुर्गावती के मायके और ससुराल पक्ष की जाति भिन्न थी। फिर भी दुर्गावती की प्रसिद्धि से प्रभावित होकर राजा संग्राम शाह ने उसे अपनी पुत्रवधू बना लिया।
पर दुर्भाग्यवश विवाह के चार वर्ष बाद ही राजा दलपतशाह का निधन हो गया। उस समय दुर्गावती की गोद में तीन वर्षीय नारायण ही था।
दलपत शाह की मृत्यु लगभग १५५० ईसवी सदी में हुई । उस समय वीर नारायण की आयु बहुत अल्प होने के कारण, रानी दुर्गावती ने गोंड राज्य की बागडोर अपने हाथों में थाम ली । अधर कायस्थ एवं मन ठाकुर, इन दो मंत्रियों ने सफलता पूर्वक तथा प्रभावी रूप से राज्य का प्रशासन चलाने में रानी की मदद की । रानी ने सिंगौरगढ से अपनी राजधानी चौरागढ स्थानांतरित की। सातपुडा पर्वत से घिरे इस दुर्ग का (किलेका) रणनीतिकी दृष्टि से बडा महत्त्व था।
कहा जाता है कि इस कालावधि में व्यापार बडा फूला-फला । प्रजा संपन्न एवं समृद्ध थी। अपने पूर्वजों की तरह रानी ने भी राज्य की सीमा बढाई तथा बडी कुशलता, उदारता एवं साहस के साथ गोंडवन का राजनैतिक एकीकरण प्रस्थापित किया। राज्य के २३००० गांवों में से १२००० गांवों का व्यवस्थापन उनकी सरकार करती थी । अच्छी तरह से सुसज्जित सेना में २०,००० घुडसवार तथा १००० हाथी दल के साध बडी संख्या में पैदल सेना भी अंतर्भूत थी। रानी दुर्गावती में सौंदर्य एवं उदारता, धैर्य एवं बुद्धिमत्ता का अद्भुत संगम था।
अपनी प्रजा के सुख के लिए उन्होंने राज्य में कई काम करवाए तथा अपनी प्रजा का ह्रदय जीत लिया । जबलपुर के निकट ‘रानीताल’ नामका भव्य जलाशय बनवाया । उनकी पहल से प्रेरित होकर उनके अनुयायियों ने ‘चेरीतल’ का निर्माण किया तथा अधर कायस्थ ने जबलपुर से तीन मील की दूरी पर ‘अधरतल’ का निर्माण किया। उन्होंने अपने राज्य में अध्ययन को भी बढावा दिया।
रानी दुर्गावती का यह सुखी और सम्पन्न राज्य उनके देवर सहित कई लोगों की आंखों में चुभ रहा था। मालवा के मुसलमान शासक बाजबहादुर ने कई बार हमला किया; पर हर बार उसे पराजय का मुख ही देखना पड़ा।
मुगल शासक अकबर भी राज्य को जीतकर रानी को अपने हरम में डालना चाहता था। उसने विवाद प्रारम्भ करने हेतु रानी दुर्गावती के प्रिय सफेद हाथी (सरमन) और उनके विश्वस्त वजीर आधारसिंह को भेंट के रूप में अपने पास भेजने को कहा। रानी ने यह मांग ठुकरा दी। इस पर अकबर ने अपने एक सूबेदार आसफ खां के नेतृत्व में सेनाएं भेज दीं। आसफ खां गोंडवाना के उत्तर में कड़ा मानकपुर का सूबेदार था।
एक बार तो आसफ खां पराजित हुआ; पर अगली बार उसने दुगनी सेना और तैयारी के साथ हमला बोला। दुर्गावती के पास उस समय बहुत कम सैनिक थे। उन्होंने जबलपुर के पास नरई नाले के किनारे मोर्चा लगाया तथा स्वयं पुरुष वेश में युद्ध का नेतृत्व किया। इस युद्ध में 3,000 मुगल सैनिक मारे गये। किन्तु रानी दुर्गावती की भी अपार क्षति हुई। रानी उसी दिन अंतिम निर्णय कर लेना चाहती थीं। अतः भागती हुई मुगल सेना का पीछा करते हुए वे उस दुर्गम क्षेत्र से बाहर निकल गयीं। तब तक रात घिर आयी। वर्षा होने से नाले में पानी भी भर गया।
अगले दिन 24 जून, 1564 को मुगल सेना ने फिर हमला बोला। आज रानी का पक्ष दुर्बल था। अतः रानी ने अपने पुत्र वीरनारायण को सुरक्षित स्थान पर भेज दिया। तभी एक तीर उनकी भुजा में लगा। रानी ने उसे निकाल फेंका। दूसरे तीर ने उनकी आंख को बेध दिया। रानी ने इसे भी निकाला; पर उसकी नोक आंख में ही रह गयी। तभी तीसरा तीर उनकी गर्दन में आकर धंस गया।
रानी ने अंत समय निकट जानकर अपने सहयोगी से आग्रह किया कि वह अपनी तलवार से उनकी गर्दन काट दे; पर वह इसके लिए तैयार नहीं हुआ। अतः रानी अपनी कटार स्वयं ही अपने सीने में भोंककर आत्म बलिदान के पथ पर बढ़ गयीं। गढ़मंडला की इस जीत से अकबर को प्रचुर धन की प्राप्ति हुई। उसका ढहता हुआ साम्राज्य फिर से जम गया। इस धन से उसने सेना एकत्र कर अगले तीन वर्ष में चित्तौड़ को भी जीता।
इस आत्म बलिदान को प्रसिद्ध कवियित्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने अपने शब्दों में कुछ इस तरह ढाला–
“थर-थर दुश्मन कांपे,
पग-पग भागे अत्याचार,
नरमुण्डों की झड़ी लगाई,
लाशें बिछाई कई हजार,
जब विपदा घिर आई चहुंओर,
सीने में खंजर लिया उतार.
चंदेलों की बेटी थी,
गौंडवाने की रानी थी,
चण्डी थी रणचण्डी थी,
वह दुर्गावती भवानी थी.”
जबलपुर के पास जहां यह ऐतिहासिक युद्ध हुआ था, उस स्थान का नाम बरेला है, जो मंडला रोड पर स्थित है, वही रानी की समाधि बनी है, जहां गोण्ड जनजाति के लोग जाकर अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं।
रानी दुर्गावती के सम्मान में 1983 में जबलपुर विश्वविद्यालय का नाम बदलकर रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय कर दिया गया भारत सरकार ने 24 जून 1988 रानी दुर्गावती के बलिदान दिवस पर एक डाक टिकट जारी कर रानी दुर्गावती को याद किया।
जबलपुर में स्थित संग्रहालय का नाम भी रानी दुर्गावती के नाम पर रखा गया | मंडला जिले के शासकीय महाविद्यालय का नाम भी रानी दुर्गावती के नाम पर ही रखा गया है। रानी दुर्गावती की याद में कई जिलों में रानी दुर्गावती की प्रतिमाएं लगाई गई हैं और कई शासकीय इमारतों का नाम भी रानी दुर्गावती के नाम पर रखा गया है।
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